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तत्त्वार्थसूत्र

अध्याय 9 (संवर-निर्थराधिकार)

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सामाययकच्छेदापेस्र्ापिा-पररहारववशुद्धि-सूक्ष्मसाम्पराय-यर्ाख्यात-ममनतचाररत्रम्॥18॥

•सामाययक, छेदाेपस्र्ापिा, पररहारववशदु्धि, सूक्ष्मसाम्पराय अा र यर्ाख्यात यह पााँच प्रकार का चाररत्र ह ॥18॥

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चाररत्र (संयम)

निश्चय चाररत्र

साम्य भाव

व्यवहार चाररत्र

व्रताें कािारण

सममनतयाेंका पालि

कषायाें का निग्रह

दण ाें कात्याग

इन्द्रियाेंकी ववर्य

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संयम

1.सामाययक

2.छेदापेस् र्ापिा

3.पररहार ववशुद्धि

4.सूक्ष् म सांपराय

5.यर्ाख्यातचाररत्र

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संयम के निममत्त कारणक्र. निममत्त गुणस् र्ाि1 बादर संज् वलि कमथ का उदय 6-92 सूक्ष् म लाेभ कमथ का उदय 103 माेहिीय कमथ का उपशम 114 माेहिीय कमथ का क्षय 12-14

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सामाययक संयम

ऐेसा संयम ह ―

अिुत्तर

इसके समाि दसूरा िहीं

द:ुखगम् य

दलुथभपिे से प्राप् त हाेता ह ꠰

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छेदेि उपस् र्ापि ं= छेद के द्वारा उपस् र्ापि करिा

छेद

सावद्य पयाथय काे प्रायश्चश्चत्त ववधि से दरू करिा

उपस् र्ापि

अपिी अात् मा काे 5 प्रकार संयम में स्स्र्त करिा

छेदाेपस् र्ापिा संयम

प्रायश्चश्चत्त के द्वारा अपिी अात् मा काे िमथ में स् र्ावपत करिा छेदापेस् र्ापिा ह ꠰

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भेदरूप से 5 प्रकार के संयम में स् वयं काे स् र्ावपत करिा ꠰

छेद

भेदरूप संयमअर्ाथत ्5 प्रकार के व्रत, सममनत अादद में

उपस् र्ापि

अपिे काे स् र्ावपत करिा ꠰

ऐक ही संयम काे िव् यामर्थक िय से सामाययक संयम कहते ह ं ऐवं

पयाथयामर्थक िय से छेदापेस् र्ापिा संयम कहते ह ं ꠰

छेदाेपस् र्ापिा संयम

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सामाययकाे ंमें अंतरसामाययक गुणस्र्ाि स्वरूप

१. सामाययक शशक्षा व्रत दसूरी प्रनतमा, 5 वां गुणस्र्ाि अभ्यासरूप२. सामाययक प्रनतमा तीसरी प्रनतमा, 5 वां गुणस्र्ाि व्रत रूप३. सामाययक अावश्यक 6 – 7 वां गुणस्र्ाि नियम रूप४. सामाययक चाररत्र 6 से 9 वां गुणस्र्ाि यम रूप

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पररहार

प्राद्धणयाे ंकी हहंसा का त् याग

ववशुद्धि

ववशेष शुिता

पररहार-ववशुद्धि संयम

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पररहार-ववशुद्धि संयम

र्ाे र्ीव 5सममनत, 3 गुन्द्प् तसे संयुक् त हाेकर

सदाकाल हहंसारूप सावद्य काे त् याग करता

वह पररहार-ववशुद्धि संयमी

ह ।

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पररहारववशुद्धि चाररत्र वकसके हाेता ह ?

र्र म से 30 वषथ तक भाेर्ि-पािादद से सुखी रहिे के बाद

जर्िदीक्षा अंगीकार कर

पृर्क् त् व (8) वषथ तीर्ंकर के पादमलू में रहकर

िवमें प्रत् याख् याि िामक पूवथ का अध् ययि करिे वाला

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पररहारववशदु्धि चाररत्र के िारक र्ीव

नियम से 2 काेस प्रनतददि ववहार करते ह ं ꠰

3 संध् याकाल ऐवं रानत्र में ववहार िहीं करते ह ं ꠰

वषाथकाल में ववहार का निषेि िहीं ह ꠰

काल: र्घर य ― अर तमुथहूतथ; उत् कृष् ट ― 38 वषथ कम ऐक काेहट पूवथ ꠰

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सूक्ष् म सांपराय सयंम

सूक्ष् म संज् वलि लाेभ के उदय काे भाेगिे वाला

उपशमक या क्षपक र्ीव

सूक्ष् म सांपराय संयमी ह ꠰

यह संयम यर्ाख् यात से कुछ ही कम ह ꠰

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सामाययक, छेदाेपस् र्ापिा

संयम

सूक्ष् म सांपराय संयम

यर्ाख् यात संयम

इससे अधिक

इससे अधिक

संयम की वृद्धि

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उत्पन्न यर्ावस्स्र्त अात् म-स् वभावकी अवस् र्ा

यर्ाख् यात संयम ह ।

समस् त माेहिीय कमथ के सवथर्ा

उपशम या क्षय से

यर्ाख् यात संयम

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यर्ाख् यात संयम के स् वामी

छद्मस् र्उपशांतमाेही

क्षीण माेही

सवथज्ञसयाेग केवली

अयाेग केवली

ससि

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क्या प्रवृत्तत्त रूप हाेि ेसे सामाययक का सममनत में अंतभाथव हाे र्ाता

ह ?

सामययक चाररत्र कारण ह अा र सममनत कायथ ह ।

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क्या संयम िमथ में सामाययक संयम का अंतभाथव हाे र्ाता ह ?

यद्यवप संयम िमथ में चाररत्र का अंतभाथव हाे र्ाता ह तर्ावप

चाररत्र माेक्ष का साक्षात कारण ह

इस बात की सूचिा देिे के मलऐ अंत में चाररत्र का पृर्क वणथि वकया ह ।

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अिशिावमा दयथ-वतृ्तत्तपररसंख्याि-रस-पररत्याग-ववववक्तशय्यासि-कायके्लशा बाह्यं तप:॥19॥

•अिशि, अवमा दयथ, वृत्तत्तपररसखं्याि, रसपररत्याग, ववववक्तशय्यासि अा र कायके्लश यह छह प्रकार का बाह्य तप ह ॥19॥

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तपनिश्चय तप शुिात्म स्वरूप में

प्रतपि

व्यवहार तप

बाह्य तप

बाह्य िव्य के अवलंबि से हाेते ह ं ।

दसूराें काे ददखत ेह ।ं

बाह्य तप अभ्यतंर तप कीपुधि के मलऐ ह ं ।

अभ्यंतर तप

वाह्य िव्य की अपेक्षा िहीं रहती ह ।

मािससक वक्रया की प्रिािता रहती ह ।

अाभ्यतंर तप वीतरागताकी वृद्धि के मलऐ ह ।

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व्यवहार

तपबाह्य तप

अिशिअवमा दयथ

वृत्तत्त पररसखं्यािरस पररत्याग

ववववक्त शय्यासिकाय के्लश

अभ्यंतर तप

प्रायश्चश्चत्तवविय

व य्यावतृ्यस्वाध्यायव्युत्सगथध्याि

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अिशि

ख्यानत, पूर्ा, मन्त्र ससद्धि अादद ला वकक फल की अपेक्षा ि करके संयम की ससद्धि,

राग का उच्छेद,

कमाे ंका वविाश, ध्याि तर्ा

स्वाध्याय की ससद्धि के मलऐ

भाेर्ि का त्याग करिा अिशि तप ह ।

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ऊिाेदरसंयम काे र्ागृत रखिे के मलऐ

ववकाराे ंकी शांनत के मलऐ

संताषे अा र स्वाध्याय अादद की सुख पूवथक ससद्धि के मलऐ

अल्प अाहार करिा ऊिाेदर तप ह ।

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वृत्तत्तपररसंख्यािर्ब मुनि मभक्षा के मलऐ निकले ताे

घराें का नियम करिा वक

म ं अाहार के मलऐ इतिे घर र्ाऊाँ गा अर्वा

अमुक रीनत से अाहार ममलेगा ताे लंूगा, अादद

इसे वृत्तत्तपररसखं्याि तप कहते ह ं ।

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रस पररत्याग

इन्द्रियाे ंके दमि के मलऐ

नििा पर ववर्य पािे के मलऐ तर्ा

सुखपूवथक स्वाध्याय करि ेके मलऐ

घी, दिू, दही, तेल, मीठा अा र िमक का

यर्ायागे्य त्याग करिा

रस पररत्याग तप ह ।

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ववववक्तशय्यासि

ब्रह्मचयथ, स्वाध्याय, ध्याि अादद की ससद्धि के मलऐ

ऐकांत स्र्ाि में शयि करिा

ववववक्तशय्यासि तप ह ।

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कायके्लश

कि सहिे के अभ्यास के मलऐ

अाराम करिे की भाविा काे दरू करिे के मलऐ अा र

िमथ की प्रभाविा के मलऐ

ग्रीष्म ऋतु में वृक्ष के िीच ेध्याि लगािा,

शीत ऋतु में खुले हुऐ म दाि में अासि लगािा अादद

कायके्लश तप ह |

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ववशेषमात्र बाह्य तप करिे से निर्थरा िहीं हाेती ह ।

शुिाेपयागे निर्थरा का कारण ह , इसमलय ेउपचार से तप का ेभी निर्थरा का कारण कहा ह । यदद बाह्य दुुःख सहि करिा ही निर्थरा का कारण हाे, तब ताे पशु अादद भी क्षुिा-तषृा सहि करत ेह ं

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पशु ताे परािीितापवूथक सहि करते ह ं । र्ाे स्वािीिरूप से िमथबुद्धिपवूथक उपवासादद तप करे, उसे ताे निर्थरा हाेती ह ि?

िमथबुद्धि से बाह्य उपवासादद करे ताे निर्थरा का मुख्य कारण उपवासादद ससि हाे,

वकरतु पररणाम दिु हाेिे पर उपवासादद करिे से भी, निर्थरा क से सम्भव हाे सकती ह ?

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पररषह अा र कायके्लश तप में क्या अंतर ह ?

कायके्लश स्वयं वकया र्ाता ह अा र

पररषह अचािक अा र्ाता ह ।

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प्रायश्चश्चत्त-वविय-व यावतृ्त्य-स्वाध्याय-व्यतु्सगथ-ध्यािारयतु्तरम॥्20॥

•प्रायश्चश्चत्त, वविय, व यावतृ्य, स्वाध्याय, व्य ुत्सगथ अा र ध्याि यह छह प्रकार का अाभ्यरतर तप ह ॥20॥

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• पूवथ में वकये अपरािाे ंका शाेिि करिाप्रायश्चश्चत्त

• िम्र वृत्तत्त का हाेिावविय

•अपिी शमक्त के अिुसार उपकार करिाव यावतृ्त्य

• ससिातं अादद ग्रंर्ाें का अध्ययि करिास्वाध्याय

• उपधि का त्याग करिाव्युत्सगथ

• ऐक ववषय पर मचंता का निरािे करिाध्याि

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प्रायश्चश्चत्त अादद काे अभ्यंतर तप क्याें कहते ह ं?

•ये बाह्य िव्याे ंकी अपेक्षा िहीं रखत ेह ं ।•मि का नियमि करिे वाला हाेिे से इरहे ंअभ्यंतर तप कहते ह ं ।•ये अरय मतावलंवबया ेद्वारा अिभ्यस् त ह ,ं उिसे िहीं वकये र्ाते

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िवचतुदथश-पञ्च हद्वभेदा यर्ाक्रमं प्राग्ध्यािात्॥21॥

•ध्याि से पूवथ के अाभ्यरतर तपाें के अिुक्रम से िा , चार, दश, पांच अा र दाे भेद ह ं ॥21॥

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अालाचेिा-प्रनतक्रमण-तदभुय-वववके-व्युत्सगथ-तपश्छेद-पररहाराेपस्र्ापिा:॥22॥

•अालाचेिा, प्रनतक्रमण, तदभुय, वववेक, व्युत्सगथ, तप, छेद, पररहार अा र उपस्र्ा पिा यह िव प्रकार का प्रायश्चश्चत्त ह ॥22॥

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प्रायश्चश्चत्त

प्रायस =मिुष्य, मचत्त = कमथ

र्ाे मिुष्य के कमथ हर लेता ह , िि कर देता ह इसीमलऐ उसे प्रायश्चश्चत्त कहते ह ं ।

संवेग अा र निवेथद से युक्त, अपराि करिे वाला सािु अपिे दाेषाे ंका निराकरण करिे के मलऐ र्ाे अिुष्ठाि करता ह वह प्रायश्चश्चत्त िाम का तप कहलाता ह ।

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प्रायश्चश्चत्त के 9 भेद

• गुरु के समक्ष अपिे दाेषाे ंका निवेदि करिाअालाेचि• मेरे दाेष ममथ्या हाे ऐेसे भावाे ंकाे वचिाे ंसे प्रगट करिाप्रनतक्रमण

•अालाचेिा व प्रनतक्रमण दाेिाे ंसार् में करिातदभुय•सदाेष अन्न, पात्र, उपकरण अादद ममलि ेपर उिका त्याग वववेक

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• नियममत काल के मलऐ कायाेत्सगथ करिाव्युत्सगथ•अिशिाददतप• कुछ समय की दीक्षा का छेद करिाछेद• कुछ समय के मलऐ संघ से दरू करिापररहार• पूणथ दीक्षा छेदकर पुि: दीक्षा प्राप्त करिाउपस्र्ापि

प्रायश्चश्चत्त के 9 भेद

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प्रायश्चश्चत्त के लाभ

दाेषाे ंका शाेिि

मयाथदा में रहिा

भावाे ंमें उज्ज्वलता

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ज्ञाि-दशथि-चाररत्राेपचारा:॥23॥

•ज्ञाि वविय, दशथि वविय, चाररत्र वविय अा र उपचार वविय यह चार प्रकार का वविय ह ॥23॥

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वविय

वविीत हाेिा वविय ह

कषाय अा र इन्द्रियाें का मदथि करिा वविय ह अर्वा

वविय के याेग्य गुरुर्िाें के ववषय में, रत्नत्रय, उसकाे िारण करिे वालाें में यर्ायाेग्य िम्र भाव रखिा वविय ह ।

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वविय के 4 भेद• अालस्य त्याग कर अादर पूवथक सम्यग्ज्ञाि का ग्रहण करिा, अभ्यास करिा अादद ज्ञाि वविय ह ।ज्ञाि वविय

• तत्त्वार्थ का शंका अादद दाेष से रहहत श्रिाि करिा दशथि वविय ह ।दशथि वविय• अपि ेमि काे चाररत्र पालि में लगािाचाररत्र वविय• अाचायथ अादद पूज्य पुरुषाें काे देखकर उिके मलऐ उठिा, सरमुख हार् र्ाे कर वंदिा तर्ा पराेक्ष में भी उरहें िमस्कार करिा, उिके गुणाें का स्मरण वग रह करिा, उिकी अाज्ञा का पालि करिा

उपचार वविय

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वविय के लाभ

ज्ञाि की प्रानप्त

अाचार की ववशुिता

सम्यक अाराििा की ससद्धि

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अाचायाेथपाध्याय-तपन्द्स्व-श क्ष्य-ग्लाि-गण-कुल-संघ-साि-ुमिाेज्ञािाम॥्24॥

•अाचायथ, उपाध्याय, तपस्वी, श क्ष, ग्लाि, गण, कुल, संघ, सािु अा र मिाेज्ञ इिकी व यावतृ्य के भेद से व यावतृ्य दश प्रकार का ह ॥24॥

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व यावृत्य तप के 10 भेद

• जर्िके निममत्त से (शशष्य) व्रत का अाचरण करते ह ं वह अाचायथ ह ।अाचायथ

• माेक्ष के मलऐ पास र्ाकर जर्ससे शास्त्र पढ ते ह वे उपाध्याय ह ं।उपाध्याय

• महाेपवास अादद का अिुष्ठाि करिे वाला तपस्वी ह ।तपस्वी

• शशक्षाशील श क्ष कहलाते ह ं।श क्ष

• दुुःशील या दबुथल, राेग से क्लारत शरीर वाला ग्लाि ह ।ग्लाि

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•स्र्ववराें की सरतनत काे गण कहते ह ं।गण•दीक्षकाचायथ के शशष्य समुदाय काे कुल कहते ह ं।कुल•चार वणथ के श्रमणाें के समुदाय काे संघ कहते ह ं।संघ•मचरकाल से प्रव्रजर्त काे सािु कहते ह ं।सािु•लाेक सम्मत सािु मिाेज्ञ कहलाता ह ।मिाेज्ञ

व यावृत्य तप के 10 भेद

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व यावतृ्य से लाभ

समाधि की प्रानप्त

प्रवचि में वात्सल्य

ववमचवकत्सा का सवथर्ा िाश हाे र्ाता ह ।

सािमीथ र्िाें के सार् अत्यरत प्रेम बढ ता ह ।

अाचायथ वा उपाध्याय अादद की व यावतृ्य करिे से िमथध्याि उत्पन्न हाेता ह ।

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वाचिा-पचृ्छिािपु्रेक्षाम्नाय-िमाेथपदेशा:॥25॥

•वाचिा, पृच्छिा, अिुप्रेक्षा, अाम्नाय अा र िमाेथपदेश यह पााँच प्रकार का स्वाध्याय ह ॥25॥

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स्वाध्याय

स्व + अधि + अाय

निर् अात्मा + ज्ञाि + लाभ

जर्स वक्रया से अात्मज्ञाि का लाभ हाेता ह ।अपिे अात्महहतार्थ तर्ा अरय भव्य र्ीवाे ंका हहत करिे के मलऐ ससिातं अादद ग्रंर्ाें का पठि-पाठि करत ेह ं उसका ेस्वाध्याय कहते ह ं ।

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स्वाध्याय के भेद• शास्त्र का व्याख्याि करिा वाचिा ह ।वाचिा• शास्त्र का श्रवण करिा पृच्छिा ह ।पृच्छिा•अधिगत अर्थ का मि के द्वारा अभ्यास करिाअिुप्रेक्षा ह ।अिुप्रेक्षा

• ववशुि घाेष से पाठ का पररवतथि करिा अाम्नायह ।अाम्नाय

• िमथकर्ा अादद का अिुष्ठाि करिा िमाेथपदेश ह ।िमाेथपदेश

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बाह्याभ्यरतराेपध्याे:॥26॥

•बाह्य अा र अभ्यरत र उपधि का त्याग यह दाे प्रकार का व्युत्सगथ ह ॥26॥

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व्युत्सगथ

•र्ाे बाह्य पदार्थ अात्मा के द्वारा उपात्त िहीं ह ं वा र्ाे बाह्य पदार्थअात्मा के सार् ऐकत्व काे प्राप्त िहीं हुऐ ह ं, ऐेसे वास्त,ु िि अा रिारय अादद बाह्य उपधि ह ं। उिका त्याग करिा उसे बाह्याेपधिव्युत्सगथ र्ाििा चाहहऐ।

बाह्य उपधित्याग

•क्राेि, माि, माया, लाेभ, ममथ्यात्व, हास्य, रनत, अरनत, शाेक, भय अा र र्ुगुप्सा अादद अभ्यरतर दाेषाें की निवृत्तत्त अभ्यरतरउपधि त्याग कहलाता ह ।

अभ्यरतर उपधित्याग

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प्रश्न : प्रायश्चश्चत्त के भेदाें में व्युत्सगथ का वणथि ह अतुः पुिुः व्युत्सगथ का कर्ि. व्यर्थ ह ?

उत्तर : प्रायश्चश्चत्ताें में यगिाया गया व्युत्सगथ अनतचार हाेिे पर उसकी शुद्धिके मलऐ वकया र्ाता ह अतुः प्रायश्चश्चत्त व्युत्सगथ का प्रनतद्वरद्वी ह अा रव्युत्सगथ तप स्वयं निरपेक्ष भावाें से वकया र्ाता ह , इसमलऐ प्रायश्चश्चत्त केभेद व्युत्सगथ अा र स्वतंत्र व्युत्सगथ तप इि दाेिाें में भदे ह अर्ाथत् प्रायश्चश्चत्ततप से ताे लगे हुऐ दाेषाें का निराकरण हाेता ह अा र व्युत्सगथ तप सेनिर्थरा अा र संवर हाेता ह ।

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उत्तम-संहििस्य काग्र-मचरता-निराेिाे ध्यािमारतमुथहूताथत॥्27॥

•उत्तम संहिि वाले का •ऐक ववषय में • मचत्त वृत्तत्त का राेकिा ध्याि ह •र्ाे अरतूमुथहूतथ काल तक हाेता ह ॥27॥

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अात्तथ-रा ि-िम्यथ-शुक्लानि ॥28॥

•अातथ, रा ि, िम् यथ अा र शुक् ल — ये ध् याि के चार भेद ह ं ॥28॥

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ध्याि मचत्त काे अरयववकल्पाें से हटाकरऐक ही अर्थ में लगािेकाे ध्याि कहते ह ं ।

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सूत्र में ‘उत्तम संहिि’ पद का ग्रहण वकसमलऐ वकया ह ?

उत्तम संहिि वाला र्ीव ही इतिे समय तक ऐक पदार्थ मेंमचत्तवतृ्तत्त का निरािे कर सकता ह ,

अरय संहिि वाले िहीं।

इस बात की सूचिा करिे के मलऐ सूत्र में उत्तम संहिि शब्दका ग्रहण वकया ह ।

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सूत्र में ‘ऐकाग्र’ पद का ग्रहण क्याें वकया ह ?

सूत्र में ‘ऐकाग्र’ पद व्यग्रता-चचंलता की निवृत्तत्त के मलऐ ह

क्याेंवक ज्ञाि व्यग्र हाेता ह ।

ध्याि की ऐकाग्रता काे प्रकट करिे के मलऐ ददया गया ह ।

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सूत्र में ‘मचरतानिरािेुः’ पद वकसमलऐ ददया ह ?

सूत्र में ‘मचरतानिरािेुः’ पद का ग्रहण ध्याि के स्वाभाव्यका द्याेति करिे के मलऐ ह ।मचरता ज्ञाि की पयाथय ह ।

उस ज्ञाि की व्यग्रता हट र्ािा ही ध्याि ह ।

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ध्याि करते समय ८ बाताें का ध्याि रखिा चाहहऐ-

• ध्याि करिे वाला(१) ध्याता• मचंति वक्रया(२) ध्याि• प्रयाेर्ि निर्थरा, संवर रूप ।(३) ध्याि का फल• मचंति याेग्य पदार्थ(४) ध्येय• जर्स पदार्थ का ध्याि करता ह । (िव्य) (५) यस्य•र्हााँ ध्याि करता ह । (क्षेत्र) (६) यत्र• जर्स समय ध्याि करता ह । (काल) (७) यदा• जर्स रीनत से ध्याि करता ह । (भाव) (८) यर्ा

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ध्यािअात्तथध्याि

अनिि संयाेगर्

इिववयागेर्

वेदिा

निदािर्

रा िध्याि

हहंसािदंी

मृषािदंी

चा याथिदंी

ववषयसरंक्षणािदंी

िमथध्याि

अाज्ञा ववचय

अपाय ववचय

ववपाक ववचय

संस्र्ाि ववचय

शुक्लध्याि

पृर्क्त्व ववतकथ ववचार

ऐकत्व ववतकथ अववचार

सूक्ष्मवक्रया प्रनतपानत

व्युपरत वक्रया निवृत्तत्त

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परे माेक्षहेतू ॥29॥•उिमें से पर अर्ाथत् अर त के दाे ध् याि माेक्ष के हतेु ह ं ॥29॥

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ध्याि का फल क्या ह ?

•संसार का कारणअात्तथध्याि व रा िध्याि

•परम्परा से माेक्ष का कारणिमथध्याि

•साक्षात् माेक्ष का कारण ह शुक्लध्याि

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अातथममिाजे्ञस्य संप्रयाेग ेतहद्वप्रयागेाय स्मृनत-समरवाहार:॥30॥

•अमिाेज्ञ पदार्थ के प्राप् त हाेिे पर उसके ववयाेग के मलऐ मचर तासातत् य का हाेिा प्रर्म अातथध् याि ह ॥30॥

ववपरीतं मिाेज्ञस्य॥31॥•मिाेज्ञ वस् तु के ववयागे हाेिे पर उसकी प्रान्द्प् त की सतत मचर ता करिा दसूरा अातथध् याि ह ॥31॥

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अातथध् यािअातथ शब्द 'ऋत' अर्वा 'अनत' इिमें से ऐक से बिा ह ।इिमें से ऋत का अर्थ दुुःख ह अा र अनतथ की ‘अदथिं अनतुः' ऐेसी निरुमक्त हाेकरउसका अर्थ पी ा पहुाँचािा ह ।इसमें र्ाे हाेता ह वह अातथ ह ।

दुुःख असातावदेिीय के उदय से प्राप्त ववष, कणटकादद कारणाें से हाेता ह ।जर्स प्रकार गीला वस्त्र िूमल काे अाश्रय देता ह , उसी प्रकार यह अातथध्याि पाप काेग्रहण करता ह ।

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•दुुःख के कारण बािाकारी, ववष, कंटक, शत्र,ु शस्त्रादद अवप्रय वस्तुऐाँ अमिाजे्ञ कहलाती ह ं ।

अमिाेज्ञ

•स्मृनत काे दसूरे पदार्थ की अाेर ि र्ािेदेकर बार-बार उसी में लगाये रखिासमरवाहार ह ।

समरवाहार

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(१) सभी प्रकार के अमिाजे्ञ ववषयाें की उत्पत्तत्त िहीं हाे, इस प्रकार बार-बार मचरताकरिा।(२) वकसी प्रकार के अमिाजे्ञ ववषय की उत्पत्तत्त हाे गयी हाे ताे उसका अभाव वकसप्रकार हाे ऐेसा निररतर संकल्प करिा।(३) मेरे इहलाेक सम्बरिी अा र परलाेक सम्बरिी इि ववषय का ववयाेग ि हाे ऐेसाबार-बार मचरति करिा।

(४) पहले उत्पन्न इि ववषय के ववयागे के अभाव का बार-बार मचरति करिा।

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अनिि संयाेग अात्तथध्याि

उपयुथक्त चार प्रकार के अमिाेज्ञाें का सम्बरि मेरे सार् उत्पन्न ि हाे,

इस प्रकार के संकल्प का बार-बार मचरति करिा

अा र वह भी तीव्र कषायाें के सम्बरि से मचरति करिा

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इि ववयागे अातथध्याि

इि पुत्र, स्त्री, राज्य, भाई अादद मिाेज्ञ पदार्ाें का ववयाेग हाेिे पर

लाेभी पुरुष र्ाे मि में के्लश उत्पन्न कर

उिके संयाेग का प्रनतददि बार-बार मचरति करते ह ं

उसकाे इिववयाेगर् िाम का दसूरा अातथध्याि कहते ह ।ं

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ववशेषयह अातथध्याि कृष्ण, िील, कापाते इि तीि अशुभ लेश्याअाें के बल सेउत्पन्न हाेता ह , इसका समय अरतमुथहूतथ ह ,

मिुष्याें के वबिा ही यत्न के यह उत्पन्न हाेता ह

अा र दुुःखाददक का हाेिा ही इसका कारण ह ।

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•स क ाें के्लशाें से व्याकुल हुअा अा र कषायाें से कलुवषतहुअा अात्मा ही इसका ध्याता ह ।

अातथ ध्याि काध्याता

•अशुभ करिे वाली संसार की अशुभ वस्तु ही ह ।अातथध्याि में

ध्येय•समस्त के्लशाें से भरी हुई नतयंचगनत का प्राप्त हाेिा हीइसका फल ममथ्यादृधियाें के अत्यरत के्लश से यह ध्यािहाेता ह तर्ा सम्यग्दृधियाें के वबिा के्लश के हाेता ह ।

अातथ ध्याि काफल

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वेदिायाश्च॥32॥

•वेदिा के हाेिे पर उसे दरू करिे के मलऐ सतत मचर ता करिा तीसरा अातथध् याि ह ॥32॥

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• वात-वपत्त-कफ के प्रकाेप से उत्पन्न हुऐ, शरीर काे िाश करिे वाले, वीयथ से प्रबल अा र क्षण-क्षण में उत्पन्न हाेिे वाले कास-श्वास, भगंदर, र्लादेर, र्रा-काढे , अनतसार, ज्वराददक राेगाें से मिुष्याें के र्ाे व्याकुलता हाेती ह उसे अनिंददत पुरुषाें िे राेग-पी ामचरति िाम का अातथध्याि कहा ह ।

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निदािं च ॥33॥

• निदाि िाम का चा र्ा अातथध् याि ह ॥33॥

तदववरतदेशववरतप्रमत्तसंयतािा ं॥34॥•यह अातथध् याि अववरत, देशववरत अा र प्रमत्तसंयत र्ीवाें के हाेता ह ॥34॥

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निदाि

भाेगाें की तृष्णा से पीद त हाेकर

रात ददि अागामी भाेगाे ंकाे प्राप्त करिे की मचंता करते रहिा

निदाि अातथध्याि ह ं ।

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निदाि शल्यनिरंतर सताती ह ।

कषाय की तीव्रता

अव्रती के हाेती ह ।

निदाि अातथध्यािकभी कभी हाेता ह ।

कषाय कम तीव्र

अव्रती व देशव्रती दाेिाे ंके हाे सकता ह ।

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'ववपरीतं मिाेज्ञस्य' इस सूत्र से निदाि का संग्रह हाे र्ाता ह ?

िहीं,क्याेवंक निदाि अप्राप्त की प्रानप्त के मलऐ हाेता ह ,

इसमें पारला वकक ववषय-सखु की गृद्धि से अिागत अर्थ-प्रानप्त के मलऐ सतत मचरताचलती रहती ह ।

इि ववयाेग में वतथमािकामलक मचरता ह , यह इि दाेिाें में ववशेषता ह ।

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प्रमत्तसयंत के 'निदाि' अात्तथध्याि क्याें िहीं हाेता ह ?

•प्रमत्तसंयत के निदाि िामक अातथध्याि िहीं हाेता क्याेंवक निदािशल्य हाेिे से व्रताें की घातक ह ।

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हहंसाितृ-स् तये-ववषयसंरक्षणेभ्याे रा िमववरत-देशववरतया:े॥35॥

• हहंसा, असत् य, चाेरी अा र ववषयसंरक्षण के मलऐ सतत मचर ति करिा रा िध् याि ह । वह अववरत अा र देशववरत के हाेता ह ॥35॥

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•र्ीवाें का भेदिा, छेदिा, ववदारण तर्ा प्राणहरणअादद दुुःखाते्पत्तत्त के कारणाें से ऐवं इसी प्रकार केअरय भयंकर कारणाें से हहंसा में रुमच हाेिा हहंसािरदिामक रा िध्याि ह ।

हहंसािरदरा िध्याि

•र्ाे मिुष्य असत्य कल्पिाअाें के समूह पापरूप म लसे ममलिमचत्त हाेकर र्ाे कुछ चेिा करे उसे निश्चयकरके ‘मृषािरद रा िध्याि' कहते ह ं।

मृषािरदरा िध्याि

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•र्ीवाें के चा यथकमथ के मलऐ निररतर मचरता उत्पन्न हाे तर्ाचाेरी कमथ करके भी निररतर अतुल हषथ मािे, अािन्द्रदत हाेतर्ा अरय काेई चाेरी के द्वारा परिि काे हरे उसमें हषथ मािे, उसे निपणु पुरुष चा यथकमथ से उत्पन्न हुअा रा िध्याि कहते ह ं।

चा याथिरदरा िध्याि

• यदद मेरा िव्य काेई चुरायेगा ताे म ं उसे मार ालूाँगा, इसप्रकार से अायुि काे हार् में लेकर मारिे का अमभप्राय करिापररग्रह संरक्षणािरद रा िध्याि ह ।

पररग्रहािरदरा िध्याि

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रा िध्याि के स्वामी

ममथ्यात्व गुणस्र्ाि

सासादि गुणस्र्ाि ममश्र गुणस्र्ाि

अववरत गुणस्र्ाि

देशववरत गुणस्र्ाि

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र्ाे व्रती िहीं ह उिके रा ि ध्याि भले ही हाे, वकरतु देशव्रती श्रावक के यह क से हाे सकता ह ?

•श्रावक पर अपिे िमाथयतिाे ंकी रक्षा का भार ह , स्त्री, िि की अादद रक्षा करिा उसे अभीि ह , अत: इिकी रक्षा के मलऐ र्ब कभी हहंसा के अावेश में अा र्ािे से रा ि ध्याि हा ेसकता ह । • वकरतु सम्यग्दृधि हाेिे से उसे ऐेसा रा ि ध्याि िहीं हाेता र्ाे उसे िरक में ले र्ाऐगा ।

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अाज्ञापाय-ववपाक-संस्र्ाि-ववचयाय िम्यथम् ॥36॥

•अाज्ञा, अपाय, ववपाक अा र संस् र्ाि इिकी ववचारणा के निममत्त मि काे ऐकाग्र करिा िम् यथध् याि ह ॥36॥

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िम्यथ ध्याि के भेद•अागम प्रामाणय से अर्थ की अविारणा करिा अाज्ञाववचयिमथध्याि ह ।अाज्ञा ववचय

•सरमागथ के अपाय का मचरति करिा अपाय ववचयिमथध्याि ह ।अपाय ववचय

•कमथ प्रकृनतयाें के उदय अा र उदीरणा का ववचार करिाववपाक-ववचय िमथध्यािववपाक ववचय

•लाेक के स्वभाव का मचरति करिा संस्र्ाि ववचयिमथध्याि ह ।संस्र्ाि ववचय

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िमथध्याि वकि-वकि गुणस्र्ािाें में हाेता ह ?

अववरत सम्यग्दृधि देशववरत प्रमत्त ववरत

अप्रमत्त ववरत

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ममथ्यादृधि के िमथ भाविा हाेती ह , िम्यथ-

ध्याि िहीं ।

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शुके्ल चाद्ये पूवथ-ववद:॥37॥

•अादद के दाे शुक् लध् याि पूवथववद् के हाेते ह ं ॥37॥

परे केवमलि:॥38॥

•शेष के दाे शुक् लध् याि केवली के हाेते ह ं ॥38॥

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सूत्र में 'पूवथववद्' का ग्रहण क्याें वकया गया ह ?

अादद के दाे शुक्लध्याि िारण करिे का सामथ्यथ सकल श्रुत के िारी के ह ,

अरय के िहीं।

इस बात की सूचिा देिे के मलऐ पूवथववद् ववशेषण का ग्रहण वकया गया ह ।

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सूत्र में ददये गये 'च' का क्या अर्थ ह ?

पूवथ कमर्त िमथध्याि के समुच्चय के मलऐ 'च' शब्द काउले्लख वकया ह

वक पूवथववद् के अादद के पृर्क् ववतकथ वीचार अा र ऐकत्वववतकथ ये दाे ध्याि हाेते ह ं अा र िमथ-ध्याि भी हाेता ह ।

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वतथमाि में दश अा र चा दह पूवथ तक का श्रुतज्ञाि िहीं हाेता अतुः ध्यािक से हाे सकता ह ?

दश अा र चा दह पूवथ तक के श्रुतज्ञाि से ध्याि हाेता ह , यह भीउत्सगथ वचि ह ।

अपवाद व्याख्याि से ताे पााँच सममनत अा र तीि गुनप्त काे प्रनतपादिकरिे वाले सारभूत श्रुतज्ञाि से भी ध्याि अा र केवलज्ञाि हाेता ह ।

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पंचमकाल में ध्याि िहीं ह क्याेंवक इस काल में उत्तम संहििका अभाव ह ?

इस समय शुक्ल ध्याि िहीं ह पररतु िम्यथ ध्याि ह ।

यह िमथध्याि अात्मस्वभाव में स्स्र्त के हाेता ह ।

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पृर्क्त्व कत्व-ववतकथ -सूक्ष्मवक्रया-प्रनतपानत-व्युपरत-वक्रयाथनिवतीथनि ॥39॥

•पृर्क् त् वववतकथ , ऐकत् वववतकथ , सूक्ष् मवक्रयाप्रनतपानत अा र व् युपरतवक्रयानिवनतथ — ये चार शुक् लध् याि ह ं ॥39॥

त्र्येकयाेग-काययाेगायाेगािाम्॥40॥

•वे चार ध् याि क्रम से तीि याेगवाले, ऐक याेगवाले, काययाेगवाले अा र अयाेग के हाेते ह ं ॥40॥

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ऐकाश्रये सववतकथ वीचारे पूवेथ॥41॥

•पहले के दाे ध् याि ऐक अाश्रय वाले, सववतकथ अा र सवीचार हाेते ह ं ॥41॥

अवीचारं हद्वतीयम्॥42॥

•दसूरा ध् याि अवीचार ह ॥42॥

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शुक्ल ध्याि

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ववतकथ : श्रुतम् ॥43॥

• ववतकथ का अर्थ श्रुत ह ॥43॥

•श्रुत / ववशेष रूप से तकथ णा या ववचार करिाववतकथ

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वीचाराेऽर्थव्यरं्ि-याेगसंक्रान्द्रत:॥44॥

वीचार

संक्रांनत / पलटिाअर्थ (िव्य अा र पयाथय), व्यंर्ि (वचि, शब्द), याेग (मि, वचि या काय याेग) का पलटिा

•अर्थ, व् यञ्जि अा र याेग की संक्रान्द्रत वीचार ह ॥44॥

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सम्यग्दृधि-श्रावक-ववरतािरतववयारे्क-दशथिमाहे-क्षपकापेशम-काेपशांत-माहेक्षपक-क्षीणमाहे-जर्िा: क्रमशाऽेसखं्येय-गणु-

निर्थरा:॥45॥•सम् यग् दृधि, श्रावक, ववरत, अिर तािबुस्रि-ववयाेर्क, दशथिमाहेक्षपक, उपशमक, उपशार तमाहे, क्षपक, क्षीणमाहे अा र जर्ि ये क्रम से असंख् यगणु निर्थरावाले हाेते ह ं ॥45॥

स् र्ाि स् वरूप स् वामी (गुणस् र्ाि अपेक्षा)

सानतशय ममथ् यादृधि

प्रर्मापेशम सम् यक् त् व की उत्पत्तत्त के समय करण लस्ब्ि के अंनतम समय में वतथमाि र्ीव 1

1. सम् यग् दृधि अव्रती श्रावक 42. श्रावक व्रती श्रावक 53. ववरत मुनि 6-74. अिंतािबुंिी ववयारे्क

अिंतािबुिंी काे अप्रत् याख् यािावरण अादद रूप ववसयंाजेर्त करिे वाला 4-7

गुणश्रेणी निर्थरा के स्र्ाि

स् र्ाि स् वरूप स् वामी (गुणस् र्ाि अपेक्षा)

5. दशथिमाहे क्षपक दशथिमाहे का क्षय करिे वाला 4-76. उपशामक चाररत्रमाहे दबाि ेवाला उपशम श्रेणी 8-107. उपशातं कषाय चाररत्रमाहे दबि ेपर 118. क्षपक चाररत्रमाहे काे क्षय करिे वाला क्षपक श्रेणी 8-109. क्षीण माेह चाररत्रमाहे के क्षय हाेिे पर 1210. स्वस्र्ाि सयाेगीजर्ि

घानतया कमाें का क्षय करिे के बाद याेग-सहहत 13

11. समुद्घातगत सयाेगी जर्ि

समुद्घात अवस्र्ा काे प्राप्त सयाेगकेवली जर्ि 13

उदाहरणसंख्यात का प्रमाण 2 मािा, अा र असंख्यात का प्रमाण 5 मािा ।

निर्थरा हेतु िव् य बांटिे याेग् य अायाम ऐक निषेक काे प्राप् त अा सत1 10,000 2096 52 50,000 1024 503 2,50,000 512 5004 12,50,000 256 50005 62,50,000 128 50000प्रनतस् र्ाि में िव् य असंख् यातगुणा बढ ता ह अा र गुणश्रेणी अायाम का काल संख् यातगुणा हीि हाेता ह ।

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पुलाक-वकुश-कुशील-निग्रथरर्-स्नातका निग्रंर्ा: ॥46॥•पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रथर र् अा र स् िातक ये पााँच निग्रथर र् ह ं ॥46॥

संयम-श्रुत-प्रनतसेविा-तीर्थमलङ्ग-लेश्यापेपाद-स्र्ाि-ववकल्पत: साध्या:॥47॥

•संयम, श्रुत, प्रनतसेविा, तीर्थ, मलंग, लेश् या, उपपाद अा र स् र्ाि के भेद से इि निग्रथर र्ाें का व् याख् याि करिा चाहहऐ ॥47॥

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➢Reference : तत्त्वार्थमञ्जषूा, गाेम्मटसार कमथकाण , गाेम्मटसार र्ीवका ं -रेखामचत्र ऐवं तामलकाअाे ंमें, तत्त्वार्थसतू्र - रेखामचत्र ऐवं तामलकाअाे ंमें➢Presentation developed by: Smt. Sarika Vikas Chhabra➢For updates / feedback / suggestions, please contact➢Sarika Jain, sarikam.j@gmail.com

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