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niraj-kumar
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Holi origin
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इस गोष्ठी के अन्य वि द्वान् - डा. रमाकान्त शुक्ल ने अपने शोधपूर्ण� क्तव्य में बताया विक 'वि#यदर्शिश&का', 'रत्ना ली', ' कुमार सम्भ ' सभी में रंग का र्ण�न आया है। कालिलदास रलि0त 'ऋतुसंहार' में पूरा एक सग� ही ' सन्तोत्स ' को अर्पिप&त
है। 'भारवि ', 'माघ' सभी ने सन्त की खूब 00ा� की है। ' पृथ् ीराज रासो' में होली का र्ण�न है। महाकवि सूरदास ने तो सन्त ए ं होली पर 78 पद लिलखे हैं। पद्माकर ने भी होली वि षयक #0ुर र0नायें की हैं।
यह बहुत प्राचीन उत्सव है। इसका आरम्भि�क शब्दरूप होलाका था।[1] भारत में पूव" भागों में यह शब्द प्रचलि&त था। जैमिमनिन एवं शबर का कथन है निक 'हो&ाका' सभी आय- द्वारा सम्पादिदत होना चानिहए। काठकगृह्य [2] में एक सूत्र है 'राका हो&ा के', जिजसकी व्याख्या टीकाकार देवपा& ने यों की है- 'हो&ा एक कम<-निवशेष है जो म्भि>त्रयों के सौभाग्य के लि&ए सम्पादिदत होता है, उस कृत्य में राका [3] देवता है।'[4] अन्य टीकाकारों ने इसकी व्याख्या अन्य रूपों में की है। 'हो&ाका' उन बीस क्रीड़ाओं में एक है जो सम्परू्ण< भारत में प्रचलि&त हैं। इसका उल्&ेख वात्>यायन के कामसूत्र[5] में भी हुआ है जिजसका अथ< टीकाकार जयमंग& ने निकया है। फाल्गुन की पूर्णिर्णMमा पर &ोग श्रृंग से एक-दूसरे पर रंगीन ज& छोड़ते हैं और सुगंलिRत चूर्ण< निबखेरते हैं। हेमादिS[6] ने बृहद्यम का एक श्लोक उद्भतृ निकया है। जिजसमें होलि&का-पूर्णिर्णMमा को हुताशनी[7] कहा गया है। लि&Mग पुरार्ण में आया है- 'फाल्गुन पूर्णिर्णMमा को 'फाल्गुनिनका' कहा जाता है, यह बा&-क्रीड़ाओं से पूर्ण< है और &ोगों को निवभूनित, ऐश्वय< देने वा&ी है।' वराह पुरार्ण में आया है निक यह 'पटवास-निव&ालिसनी' [8] है।शताजिब्दयों पूव< से होलि&का उत्सव
बाज़ार में विप0कारिरयाँ
जमैिमविन ए ं काठकगृह्य में र्णिर्ण&त होने के कारर्ण यह कहा जा सकता है विक ईसा की कई शताब्दिGदयों पू � से 'होलाका' का उत्स #0लिलत था। कामसूत्र ए ं भवि ष्योत्तर पुरार्ण इसे सन्त से संयुक्त करते हैं, अत: यह उत्स पूर्णिर्ण&मान्त गर्णना के अनुसार ष� के अन्त में होता था। अत: होलिलका हेमन्त या पतझड़ के अन्त की सू0क है और सन्त की काम#ेममय लीलाओं की द्योतक है। मस्ती भरे गाने, नृत्य ए ं संगीत सन्तागमन के उल्लासपूर्ण� क्षर्णों के परिर0ायक हैं। सन्त की आनन्दाभिभव्यलिक्त रंगीन जल ए ं लाल रंग, अबीर-गुलाल के पारस्परिरक आदान-#दान से #कट होती है। कुछ #देशों में यह रंग युक्त ाता रर्ण 'होलिलका के दिदन' ही होता है, विकन्तु दभिक्षर्ण में यह होलिलका के पाँ0 ें दिदन (रंग - पं0मी ) मनायी जाती है। कहीं-कहीं रंगों के खेल पहले से आरम्भ कर दिदये जाते हैं और बहुत दिदनों तक 0लते रहते हैं; होलिलका के पू � ही 'पहुनई' में आये हुए लोग एक-दूसरे पर पंक (की0ड़) भी फें कते हैं।[10] कही-कहीं दो-तीन दिदनों तक मिमट्टी, पंक, रंग, गान आदिद से लोग मत ाले होकर दल बना कर होली का हुड़दंग म0ाते हैं, सड़कें लाल हो जाती हैं। ास्त में यह उत्स #ेम करने से सम्बन्धिcत है, विकन्तु लिशष्टजनों की नारिरयाँ इन दिदनों बाहर नहीं विनकल पातीं, क्योंविक उन्हें भय रहता है विक लोग भद्दी गालिलयाँ न दे बैठें । श्री गुप्ते ने अपने लेख[11] में #कट विकया है विक यह उत्स ईजिजप्ट , मिमस्र या ग्रीस , यूनान से लिलया गया है। विकन्तु यह भ्रामक दृमिष्टकोर्ण है। लगता है, उन्होंने भारतीय #ा0ीन ग्रन्थों का अ लोकन नहीं विकया है, दूसरे, े इस वि षय में भी विनभिnत नहीं हैं विक इस उत्स का उद्गम मिमस्त्र से है या यूनान से। उनकी धारर्णा को गम्भीरता से नहीं लेना 0ाविहए।
[सम्पादन] होलि&का
हेमादिp [12] ने भवि ष्योत्तर[13] से उद्धरर्ण देकर एक कथा दी है। युमिधमिष्ठर ने कृष्र्ण से पूछा विक फाल्गुन-पूर्णिर्ण&मा को #त्येक गाँ ए ं नगर में एक उत्स क्यों होता है, #त्येक घर में बच्चे क्यों क्रीड़ामय हो जाते हैं और 'होलाका' क्यों जलाते हैं, उसमें विकस दे ता की पूजा होती है, विकसने इस उत्स का #0ार विकया, इसमें क्या होता है और यह 'अडाडा' क्यों कही जाती है।
#ह्लाद को गोद में विबठाकर बैठी होलिलकाकृष्र्ण ने युमिधमिष्ठर से राजा रघु के वि षय में एक किक& दंती कही। राजा रघु के पास लोग यह कहने के लिलए गये विक 'ढोण्ढा' नामक एक राक्षसी है जिजसे लिश ने रदान दिदया है विक उसे दे , मान आदिद नहीं मार सकते हैं और न ह अस्त्र शस्त्र या जाड़ा या गमy या षा� से मर सकती है, विकन्तु लिश ने इतना कह दिदया है विक ह क्रीड़ायुक्त बच्चों से भय खा सकती है। पुरोविहत ने यह भी बताया विक फाल्गुन की पूर्णिर्ण&मा को जाडे़ की ऋतु समाप्त होती है और ग्रीष्म ऋतु का आगमन होता है, तब लोग हँसें ए ं आनन्द मनायें, बच्चे लकड़ी के टुकडे़ लेकर बाहर #सन्नतापू �क विनकल पड़ें, लकविड़याँ ए ं घास एकत्र करें, रक्षोघ्न मन्त्रों के साथ उसमें आग लगायें, तालिलयाँ बजायें, अब्दि|न की तीन बार #दभिक्षर्णा करें, हँसें और #0लिलत भाषा में भदे्द ए ं अश्लील गाने गायें, इसी शोरगुल ए ं अट्टहास से तथा होम से ह राक्षसी मरेगी। जब राजा ने यह सब विकया तो राक्षसी मर गयी और ह दिदन 'अडाडा' या 'होलिलका' कहा गया। आगे आया है विक दूसरे दिदन 0ैत्र की #वितपदा पर लोगों को होलिलकाभस्म को #र्णाम करना 0ाविहए, मन्त्रोच्चारर्ण करना 0ाविहए, घर के #ांगर्ण में गा�कार स्थल के मध्य में काम-पूजा करनी 0ाविहए। काम-#वितमा पर सुन्दर नारी द्वारा 0न्दन-लेप लगाना 0ाविहए और पूजा करने ाले को 0न्दन-लेप से मिमभिश्रत आम्र-बौर खाना 0ाविहए। इसके उपरान्त यथाशलिक्त ब्राह्मर्णों, भाटों आदिद को दान देना 0ाविहए और 'काम दे ता मुझ पर #सन्न हों' ऐसा कहना 0ाविहए। इसके आगे पुरार्ण में आया है- 'जब शुक्ल पक्ष की 15 ीं वितलिथ पर पतझड़ समाप्त हो जाता है और सन्त ऋतु का #ात: आगमन होता है तो जो व्यलिक्त 0न्दन-लेप के साथ आम्र-मंजरी खाता है ह आनन्द से रहता है।'[14]
1. ↑ जमैिमविन, 1।3।15-16 2. ↑ काठकगृह्य, 73,1 3. ↑ पूर्ण�0न्p 4. ↑ राका होलाके। काठकगृह्य (73।1)। इस पर दे पाल की टीका यों है: 'होला कम�वि शेष: सौभा|याय
स्त्रीर्णां #ातरनुष्ठीयते। तत्र होला के राका दे ता। यास्ते राके सुभतय इत्यादिद।' 5. ↑ कामसूत्र, 1।4।42
6. ↑ काल, पृ. 106 7. ↑ आलकज की भाँवित 8. ↑ 0ूर्ण� से युक्त क्रीड़ाओं ाली 9. ↑ लिल&गपुरार्णे। फाल्गुने पौर्ण�मासी 0 सदा बालवि कालिसनी। ज्ञेया फाल्गुविनका सा 0 ज्ञेया लोकर्पि &भूतये।।
ाराहपुरार्णे। फाल्गुने पौर्णिर्ण&मास्यां तु पट ासवि लालिसनी। जे्ञया सा फाल्गुनी लोके काया� लोकसमृद्धये॥ हेमादिp (काल, पृ. 642)। इसमें #थम का.वि . (पृ. 352) में भी आया है जिजसका अथ� इस #कार है-बाल ज्जनवि लालिसन्यामिमत्यथ�:
10. ↑ ष�कृत्यदीपक (पृ0 301) में विनम्न श्लोक आये हैं- '#भाते विबमले जाते ह्यंगे भस्म 0 कारयेत्। स ा�गे 0 ललाटे 0 क्रीविडतव्यं विपशा0 त्॥लिसन्दरै: कंुकुमैnै धूलिलभिभधू�सरो भ ेत्। गीतं ादं्य 0 नृत्यं 0 कृया�pथ्योपसप�र्णम् ॥ ब्राह्मर्णै: क्षवित्रयै �श्यै: शूpैnान्यैn जावितभिभ:। एकीभूय #कत�व्या क्रीडा या फाल्गुने सदा। बालकै: ह गन्तव्यं फाल्गुन्यां 0 युमिधमिष्ठर ॥'
11. ↑ विहन्दू हॉलीडेज ए ं सेरीमनीज'(पृ. 92 12. ↑ व्रत, भाग 2, पृ. 174-190 13. ↑ भवि ष्योत्तर, 132।1।51 14. ↑ पुस्तक- धम�शास्त्र का इवितहास-4 | लेखक- पांडुरंग ामन कार्णे | #काशक- उत्तर #देश किह&दी
संस्थान